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महाकाव्य महाभारत अनुसार बाणों की शैया पर लेटे भीष्म पितामह इच्छयामृत्यु के वरदान के कारण अपनी मृत्यु को उस समय तक टालते रहे जब तक सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण नहीं हो गया। धार्मिक धारणा यह थी कि सूर्य के दक्षिणायन होने के बाद जो व्यक्ति शरीर का त्याग करता है,तो चंद्रलोक को जाता है और फिर मृत्युलोक (पृथ्वी) लोटकर वापस आता है जबकि सूर्य के उत्तरायण होने के बाद जो व्यक्ति शरीर का त्याग करता है,तो देवलोक को जाता है और मोक्ष को प्राप्त होता हैl
इस प्रसंग में हमारे पूर्वजो का प्रकृति के अटल सार्वभोमिक नियमो पर आधारित सनातन खगोलीय ज्ञान हमें आडम्बर जबकि वामपंथी पाठ्क्रम पैगम्बर नज़र आता होगा l पाश्च्यात विज्ञान पर आधारित खगोलीय ज्ञान की कृत्रिम बौद्धिकता को लिए हुए आज की पीढ़ी भुगोल के सामान्य नियमो से भली भांति परिचित है,परन्तु हमें लगता की 15 वीं शताब्ती के खगोलशास्त्री निकोलस कोपरनिकस से पहले का भारतीय ज्योतिष ज्ञान एक पाखण्ड से ज्यादा कुछ नहीं है l देवलोक,उत्तरायण और दक्षिणायन के वैदिक विज्ञान को राजनीति की धुंध में घुले वामपंथी विचारधारा के धुंए ने हमारी आँखों से ओझल कर दिया है l हम इन शब्दों से तो रूबरू है किन्तु इनके सनातन सत्य से अनभिज्ञ है !
आइये हम अपने महान पूर्वजो के अतुलनीय ज्ञान का एक छोटा सा अंश आपके सामने प्रस्तुत करते है –
“हम सभी सौरमंडल की सामान्य व्यवस्था से वाकिफ यह जानते हैं कि सूर्य के चारों ओर हमारा पृथ्वी ग्रह परिक्रमा लगा रहा है और पृथ्वी ग्रह के चारों ओर इसका उपग्रह चंद्रमा परिक्रमा लगा रहा है। चंद्रमा और पृथ्वी भी अपनी-अपनी धूरी पर भी भ्रमण (Spin) कर रहे हैं। यथार्थ ब्रह्मांड में प्रत्येक ग्रह-उपग्रह अपनी धुरी पर घूमता हुआ किसी दूसरे ग्रह की परिक्रमा कर रहा है l यह हमें हजारो साल ईसा पूर्व से ज्ञात है और अंश मात्र भी गलत नहीं है l इसलिए यह सनातन सत्य है l
19 फरवरी 1943 में जन्मे पोलेंड निवासी निकोलस कोपरनिकस ने यह तथ्य 15 वी शताब्दी में दुनिया के सामने रखा कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी सूर्य के चारों ओर परिक्रमा कर रही हैं l इस पर तमाशा यह कि हमने दिल्ली में एक मार्ग का नाम कोपरनिकस मार्ग रखा गया है l
यूरोपियन वर्ग तो हमारे पूर्वजो की Search को Research कर अभी तक इतना ही जान पाया है l परंतु प्रकृति के नियमों पर आधारित हमारा सनातन धर्म यहाँ तक पुष्ट करता है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड में ग्रह-उपग्रह यहाँ तक की सूर्य, अनेको आकाशगंगा भी अस्थिर है l सूर्य अपने संपूर्ण परिवार जिसे हम सौर मंडल कहते है,के साथ एक अन्य लोक की परिक्रमा कर रहा है जिसे देवलोक कहते हैं।
जैसे जिस गुरुत्व शक्ति के कारण पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करते हुए भी चंद्रमा से अपनी परिक्रमा कराती है, उसी शक्ति के अधीन सूर्य देवलोक की परिक्रमा करता हुआ अपने अधीन ग्रहों पृथ्वी,शुक्र,बुध तथा शनि इत्यादि से निरंतर अपनी परिक्रमा कराता है। इस गुरुत्व शक्ति को ही माया कहा गया है l
अब हम इस व्यवस्था के आधार पर अपने मूल विषय अर्थात उत्तरायण और दक्षिणायन को समझने का बिंदुवार प्रयत्न करते हैं-
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- सनातन धर्म में “अयन “समय / काल प्रणाली है l अयन का अर्थ होता है चलना l
- पृथ्वी अपने उपग्रह चंद्रमा के साथ सूर्य की 360 डिग्री पर परिक्रमा कर रही है
- पृथ्वी को सूर्य की 360 डिग्री परिक्रमा करने लगा समय एक वर्ष के बराबर है l
- पृथ्वी अपने अक्ष पर 23.5 डिग्री झुकी हुई है l
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- सूर्य देव अपने अधीन ग्रहों के साथ 360 डिग्री पर देवलोक की परिक्रमा कर रहे हैं l
- सूर्य की परिक्रमा करती हुई पृथ्वी जब देवलोक की ओर जाती है तो इसे ज्योतिष में उत्तरायण कहा जाता है और जब पृथ्वी देवलोक के विपरीत दिशा में पहुंच जाती है तो इसे दक्षिणायन कहा जाता है।
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- अपनी परिक्रमा में पृथ्वी देवलोक की और गमन आरम्भ करती है तो 23.5 डिग्री झुकाव के कारण उत्तरी ध्रुव देवलोक की और होता है और इस झुकाव के कारण सूर्य का प्रकाश मकर रेखा पर होता है l इसे ही सूर्य का मकर राशि में प्रवेश और मकर संक्रांति / उत्तरायण पक्ष का आरम्भ कहा जाता है l जिसे हम कर्मकाण्ड में शुभ कार्यो का देव पक्ष कहते हैं l
- उत्तरायण पक्ष छ माह का होता है l इसके उपरांत दक्षिणायन पक्ष आरंभ होता है,जिसे कालरात्रि की संज्ञा दी गई है l दक्षिणायन भी छ माह का होता है अर्थात पृथ्वी के एक वर्ष में 6 -6 माह के दो अयन होते है l दक्षिणायन देवलोक से दूर और विपरीत दिशा में होने के कारण शुभ कार्यो के लिए वर्जित माना गया है l
अतः स्पष्ट है कि भीष्म पितामह अपनी मृत्यु को उस समय तक क्यों टालते रहे जब तक सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण नहीं हो गया lपश्च्यात वैज्ञानिक और विकसित अंतरिक्ष विज्ञान स्वीकारने लगा है कि सूर्य स्थिर नहीं है और इस तरह के अनेक सौर परिवार इस ब्रह्मांड में उपस्थित हैं। देवलोक से बृह्मलोक और इससे आगे तक का सुदर्शनलोक तक का विज्ञान वेदों में है l पाश्च्यात वर्ग को हमारे पूर्वजो की Search को Research कर नोबेल लेने दो l ये अमूर्तकाल का समय हमारे जागने का, अपने स्व को पहचानने का है l जय भारत l
सन्दर्भ :सनातन धर्म की पृष्ठभूमि,सनातन पीठ प्रकाशन,लखनऊ