इस बौद्धिक विमर्श के बीच यूरोपियन राष्ट्रवाद की अवधारणा में पल बढ़ रहे आम जन गण के ज़हन में यह प्रश्न कोंधता है कि आखिर मातृभाषा/मायड़ भाषा क्या है ? इसके मायने तथा हालात क्या है ? इस प्रश्न से सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना 2011 के आयोजक भी टकराएँ थे । प्रशिक्षण के समय कार्मिको को अनोपचारिक रूप से यह स्पष्ट किया गया था कि मातृभाषा यह बोली/भाषा है जिसका प्रयोग एक माता अपनी गोद में पल-बढ़ रहे बच्चे से संवाद कायम करने के लिए करती है। अर्थात बच्चा चार वर्ष का होने तक जो बोली बिना किसी मार्गदर्शन के सीखता है,वह उसकी मातृभाषा/मायड़ भाषामात्र है । निःसंदेह यह भाषा राजस्थानी ही है।भले ही यह मारवाड़ी,जोधपुरी,हाडोती,शेखावाटी,मेवाड़ी,ढूढाणी,वागड़ी सरीखी अपने विविध देसज बोलियों रूप में ही क्यों ना हो । इन्ही बोलियों के देसज रूपों के कारण ही जोधपुर,बीकानेर.मेवाड़,जैसलमेर,कोटा,जयपुर जैसे भौगोलिक स्थान में निवास करने वाली मूल नस्ल अपने अस्तित्व-पहचान को अभिव्यक्त कर पाती है ।
आज़ादी पूर्व के राजपूताने की 19 रियासतो और 3 ठिकाणो की राजनैतिक सीमाओं का प्राथमिक निर्धारण बाहुबल ने नहीं वरन प्राकृतिक भौगोलिक जलवायु ने कर रखा था । प्रत्येक खण्ड की जलवायु ने अपने प्रभा-मंडल में निवास करने वाली मानवीय नस्ल को इस कदर प्रभावित किया कि कद-काठी,रहन-सहन,खान-पान,रीति-रिवाज,जीवन-मूल्य और उनके प्रतिमानो के साथ विभेदकारी अंतर न केवल सभ्यतागत बल्कि बोलियों में भी दृष्टिगोचर हुआ, जिसकी परिणति मारवाड़,हाडोती,शेखावाटी,मेवाड़,ढूढाड,वागड़ आदि की बोलियाँ आज भी एक दुसरे से अपनी मौलिक पृथक पहचान लिए हुए है ।
रियासत काल में बोली आधार कार्ड के समान मानसिक प्रभाव रखती थी । परन्तु न चाहते हुए भी भाषा और बोली को समानार्थी मान लेने की भूल हो जाती है । डा. धनञ्जय वासुदेव द्विवेदी, सहायक प्रोफेसर,संस्कृत विभाग,डा. श्याम प्रसाद मुखर्जी विश्विद्यालय,रांची अपने एक लेख में भाषा और बोली के मध्य बड़ी स्पष्ट और स्वीकार्य विभाजन रेखा खींचते है-
1-एक भाषा के क्षेत्र में अनेक बोलियाँ होती है,किन्तु एक बोली के क्षेत्र में अनेक भाषाएँ नहीं होती है ।
2-एक बोली दूसरी बोली से भिन्नता रखते हुए भी इतनी अधिक भिन्न नहीं होती कि दूसरी बोली वाले उसे समझ ही न सके परन्तु भाषा के साथ ऐसा नहीं होता ।
3-भाषा का अपना समृद्ध व्याकरण होता है किन्तु बोली के साथ ऐसा नहीं होता । अगर बोली में व्याकरण का विकास होता है तो वह भविष्य में भाषा का स्वरूप ग्रहण कर लेती है । इसी कारण से बोलियों में साहित्यसृजन का कार्य नहीं होता । जबकि भाषा में साहित्य,व्यापारिक,सामाजिक और प्रशासनिक कार्य होते है।
बकौल द्विवेदी राजस्थानी एक भाषा है और मारवाड़ी,जोधपुरी,हाडोती,शेखावाटी,मेवाड़ी,ढूढाणी,वागड़ी बोलियाँ है । मारवाड़,हाडोती,शेखावाटी,मेवाड़,ढूढाड,वागड़ वाले एक दुसरे की बोली आसानी से समझ सकते है परन्तु राजस्थानी और पंजाबी में ऐसा नहीं है क्यूंकि ये दोनों भाषाएँ है ।
राजपूताने के हर एक देसी राज्य के धार्मिक,संस्कार और त्योंहार के लोकगीत,लोककथाएं-नाटक,कहावतें,मुहावरे सब की जबान,बोली अपनी क्षेत्रीय विशिष्ठता की चुनर ओढ़े हुए है परन्तु जब जब इस अमूर्त श्रुति ने सुंदरलेख बन कर कागज़ पर एक मूर्तरूप धारण किया,तब तब सारे भेदों को अपने अंक में छिपा कर एकमेव मातृभाषा “राजस्थानी” प्रकट होती है,जिसके प्रमाण राजस्थान के ग्रंथागार,अभिलेखागार है । यक़ीनन राजस्थान में गणगौर पर गाये जाने वाले लोकगीत की बोली में प्रांतीय विविधता देखने को मिलती है । परन्तु माँ गौरी की पूजा का भाव जब साहित्य के रूप में मुर्तिमान होता है,तब सम्पूर्ण राजस्थान में इस लोकगीत का भाषाई रूप एक ही होता है -
राजस्थान का प्रतिनिधित्व वाक्यांश “आवो नी,पधारो म्हारे देश” राजस्थानी भाषा के पक्ष में राजस्थान सरकार के पर्यटन विभाग का स्वीकृत प्रमाण है और इससे इनकार नहीं किया जा सकता । इसी प्रकार राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत का प्रतिक “घूमर” को राज्य लोकनृत्य का दर्जा है । इस नृत्य के बोल भाषा और बोली के मध्य के अंतर को मिटा कर राजस्थानी भाषा के पक्ष में एक और अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करता है -
अब प्रश्न यह है कि राजस्थानी भाषा का सरंक्षण क्षत्रिय समाज के अस्तित्व से किस प्रकार बंधा है ? समस्त क्षत्रिय समाज एकमेव अविभाज्य अमूर्त धर्म “क्षात्र धर्म” का मूर्त उपासक था । इसी “क्षात्र धर्म” के मुलभुत सिद्धांतो के कारण ऋषि गोतम का कथन “समान प्रसवास्तिका जातिः" क्षत्रिय नस्ल को एक जाति बनाता है । इस प्रकार एक साझा धर्म ने एक साझी विचार-शक्ति को जन्म दिया,जो साझी कर्म-शक्ति में प्रस्फुटित होकर एक अमर बलिदानी संस्कृति के रूप में पुष्पित-पल्लवित हुई,जो विश्वपटल पर राजपूत संस्कृति के नाम से गुंजायमान है ।
समाज/संस्कृति जिन जीवन मूल्यों और मर्यादाओं को पीढ़ी दर पीढ़ी सरंक्षित करती है, वे मूल्य और प्रतिमान उस समाज/संस्कृति के विकास या पतन की दिशा और दशा के प्राथमिक संकेतक होते है । चूँकि संस्कृति विचारणा और आचरण की सरणी से ही जीवंत बनी रहती है । अतः विचारणा और आचरण की रहस्यंमयी शक्ति के उपासक चारण बंधुओं बने । चारण बंधुओं ने क्षत्रिय नस्ल के साझा उद्द्भव,साझा रीति-रिवाज़,साझा परम्परा,साझा इतिहास को एक साझी भाषा “राजस्थानी” में पिरोयाँ है । भाषा और भाव में नाभिनाल सम्बन्ध है ।
भाषा के शब्द अपने निहितार्थ को पाठक और श्रोता के भावतंत्र में उद्दीप्त कर देते है,जिसकी अभिव्यक्ति व्यवहार-आचरण है । कर्तव्यविमूढ़ के रक्त में भी उबाल लाने की क्षमता इन शब्दों में है । 1903 में ठाकुर केसरी सिंह बारहठ के चेतावणी रा चुंगटया(गिरद गजां घमसाण,नारचै धर माई नहीं,मावै किम महाराण,गज दोसे रा गिरद में !)ने ही महाराणा फ़तेह सिंह को दिल्ली दरबार में जाने से रोका था । इस प्रकार भाषा न केवल इतिहास को वर्तमान में पुनःजाग्रत कर देती है वरन,वर्तमान को पुनः इतिहास बनाने में सक्षम होती है । अगर नस्लीय चेतना के अस्तित्व के सिद्धांत को सुसुप्त स्मृति में जगाने की यह रहस्यमयी शक्ति मातृभाषा में नहीं होती तो, न शिवा छत्रपति शिवाजी होते और न प्रताप महाराणा प्रताप ।